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गिरवी

गिरवी

कहानीकार: ई. संतोष कुमार
अनुवाद : अप्पु मुट्टरा
मलयालम शीर्षक: “പണയം”

फर्श पर बैठे चेम्पुमत्ताई ने तिजोरी के ताले की चाबी फिरायी, एक बार फिर खींच कर जाँच लिया कि वह ठीक से बंद है। फिर जब मुँह उठाया, तो बरामदे में खडे दर्जी चाक्कुण्णी को देखा, जो केवल एक घंटे पहले ही यहाँ से निकल कर गया था। मत्ताई ने ध्यान दिया कि तीन दशकों से धागा गूँथे-गूँथे खुदीगयी आँखों से वह आसपास निहार रहा है। मत्ताई को लगा कि दर्जी कुछ बताने से हिचक रहा हो।  

“तो तू गया नहीं चाक्कूण्ये?” मत्ताई ने प्रश्न किया।

“जा के आया।” दर्जी बोला।

“उस पैसे से बच्चे को थोडी दवा लेने गया था। लौटते–लौटते जरा आया, बस।” वह सूखे गले से खाँसा। 

“क्यों बे? दिए हुए पैसे में कोई कमी है?”

“वो नहीं। वो पूरे पचास रुपये ही थे।”

दवा खरीद कर बची रकम को गिनकर दिखाते हुए चाक्कुण्णी ने बताया। “फिर क्या है? अब क्या ज़्यादा पैसे के लिए खड़ा है? उस अमानत के लिए पचास ही न मिलेगा।” “वो नहीं मत्ताई भैया…..।”

            “चाक्कुण्णी, ये तो तू था जों मैं राजी हुआ रेडियों को गिरवी लेने को वरना, सोने के अलावा और किसी चीज़ का रेहन इधर न लिया जाता। न पहले, न अब। मेरा बाप तो उस में अचूक आदमी था। सोना चाक्कोरु माप्ला [केरल मे क्रिस्टियन आदमी को ‘माप्ला’ कहते है।] के खून में ही रहा था। घिस कर देखे बिना ही बता देते थे कि इतना तांबा है, इतना सोना है। मैं तो ऐसा नहीं कर पाता। पत्थर पर घिस कर देखना है। इसीलिये कहता हूँ; सोने के अलावा किसी वस्तु को हम न लिया करते। यह तो तू पहली बार आया तो कैसे मैं न कहूँ?”  

            “उस रेडियो का मूल्य तो बडा है मत्ताई भैया।” “हिचक कर चाक्कुण्णी ने बताया।” “होगा, लेकिन सोने के मूल्य का होगा क्या?” रेडियो, गीत ये सब मुझ से न जुडते। आदमी का वक्त बरबाद करने के बहाने! अरें, उस वक्त कुछ काम करे तो चार पैसे कमाए।” “काम करते वक्त भी रेडियो सुन सकते है भैया”, मैं तो वैसा ही करता था। सिलाई के वक्त गीत, नाटक, शब्दरेखा सब के सब सुनता था। जब बटन रखता तो प्राँतीय समाचार, छोर बनाते वक्त खेत और घर।” “ओ! अब तेरे सिले कपड़ों के खराब हो जाने का कारण समझा! इस बीते पेरुन्नाल (इसाइयों का विशेष दिन) में कुज्जनम (मत्ताई कि पत्नी का नाम) के लिए जैकेट बनाते तुझे क्या हो गया था रे? वह तो इतना ढीला सिला था कि कुज्जनम और उसकी माँ दोनों उस ही मे आ जाते।”   

            “पेरुन्नाल की रेलपेल के बीच ज़रा चूक हो गया होगा भैया, कुछेक तो छोकरों से भी सिलवाता हूँ। माँ जी को भेजिये तो मैं उसे ठीक कर दूँगा।”   

“उस बात को वही रहने दे चाक्कुण्ये, अब तू लौट आया क्यों?” “वो…..” “तू मत लजा रे….किसी दुल्हनसी…जो भो हो, वो बता दे, मेरे तो बहुत से काम पडे हैं।” “वो नहीं, मत्ताई भैया कुछ न मानें…..”

            “इस उमर में अब मुझे क्या होता मानने?” “वो नहीं, मुझे मालूम है कि मत्ताई भैया ध्यान देंगे ही….फिर भी….ये सब ऐसी चीजें है जिन्हें बच्चो जैसी देखभाल चाहिए। देखें तो रेडियो के पिछले भाग पर एक छोटे बच्चे कि तस्वीर है……क्या है वो? न खूबी से रखे तो वो फिर गाएगा नहीं…..”

            ह ह हा ! चाक्कुण्ये, यही है अब अच्छा बना ! तू ने अपनी रेडियो लाकर इधर गिरवी रखी, मैं ने तो उस पर तुझे पचास रुपये गिन कर दिए भी। पाँच         नयी-नयी नोटें ! है ना? फिर मैं ने उस चीज़ पर एक नम्बर लगाया। एक सौ उनत्तीस और अलग रख दिया? बस, यही है मेरा काम। अब तो क्या यह करूंगा कि तेरे कहे जैसे उस माल को मैं बच्चों जैसे देखूँ और लोरियाँ गाऊ? कहा तो याद आया तू जानता है न, अपने बच्चों को भी मैने कभी दुलारा नहीं? हमारे अच्छे दिनों में पूरे थप्पड़ जमा कर ही मैं ने पाला था।

            जिस तरह के थप्पड़ मेरे ईनाशू, पैली, प्राँचीस और रोसम्मा ने खाए है, वे इस गाँव में और किसी बच्चे को मिले हैं क्या? क्या कारण है? पीट कर ही पालना है संतानों को। क्या मेरे बाप ने मुझे दुलारा है? आग में भून कर तार को चूतड़ पर लगा देते। मजाल है कि एक आवाज़ करू ‘इंशू’

“वैसे नहीं मत्ताई भैया, इतना ही कहा है मैंने, कि उस पे एक नज़र हो।”

            “कित्ते ही जनों के माल-गहनों का सौदा करने वाला परिवार है ये! उस के बीच है यह तेरी छुईमुई रेडियो ! तू जा रे चाक्कुण्ये। यों ही खडे-खडे समय बरबाद मत कर जा के कम से कम दो कौपीनों के छोर ही बना ले। पूँजी और ब्याज मिले बिना रेडियो यहाँ के छत पर से उतरेगी नहीं। और तेरी रेडियो इधर कोई थोडे ही सुनने वाला। सच कहूँ तो तेरा भला ही है कि ये यहीं पड़ा रहे। मनः शांति के साथ कुछ काम चलेगा।

            “यद्यपि चेम्पुमत्ताई ने ऐसे कहा, पर चाक्कुण्णी का अनुभव उलटा रहा। काम में उस का ध्यान फिसल गया। गलत नाप से कपड़े सिलने लगा, जब वह समझा, उसने उन्हें उधड़ा और वापस सिला। इस उधड़-बुन मे उसका काम लंबा हो गया। कपड़ो पर उस कि कैंची चूक कर चली। चक्कर मारते तथा सुई के उठते-डूबते वक्त उसने एक अनजान गीत के लिए कान उठाये रखे। मन में के नाटक से कोई कुछ कथापात्र शोर लगा कर बोल उठे, सिसकियाँ भरीं। यद्यपि आसपास में अधिक लोग होते थे, तो भी एक ऐसे अकेलेपन ने उसे घेर लिया जिसे शब्दो मे बताया नहीं जा सकता।”

            आराट्टुकुन्नु में ऐसा पहला नागरिक चाक्कुण्णी था जिसने एक रेडियो खरीदी। पिछले ओणम के अवसर पर दिवा-निशा के भेद के बिना की गयी लगातार सिलाई से बचा रखे पैसे से उसने वह लिया था। जिस दिन रेडियो लेने का निश्चय किया, तब उसने अपना नित धूम्रपान छोड़ दिया। ताडीखानों के नजदीक पहुँचा, तो मुँह फेर लिया। पाँव में गोखरू का रोग होते हुए भी फटे रबड़ चप्पल को हटाए बिना मुश्किल से चलता रहा। प्रतिवर्ष की मलयाट्टूर (देवालय का देवता) तीर्थयात्रा छोड़ दिया। उसकी ज़रूरत को मुत्तप्पन के सिवाय कोन समझ सकता? तीर्थाटन के रुकने पर उसने स्वयं को आश्वस्त किया।   

            आम तौर पर विपरीत उस को बस में देखकर कंडक्टर सुकूमरन ने पूछा: “चाक्कुण्णी भाई, किस ओर हैं?” “एक रेडियो खरीदनी हैं सुक्वो।” – गर्व के साथ उस ने ज़रा ज़ोर से बताया। आसपास के यात्रियों ने तब उसे आदर से देखा। लगातार कपडे सिलवाने के परिचय से हो या रेडियो खरीदने जाने के सम्मान से हो, कंडक्टर ने उस से उस दिन किराया भी वसूल नहीं किया।  

            चाक्कुण्णी ने वह मर्फी रेडियो जिसपर एक बच्चे का चित्र लगा था, खरीद ली। उसकी सिलाई दुकान में रेडियो जिस जमाने में चलने लगी थी, वह आराट्टुकुन्नु के इतिहास में एक घटना ही थी। गाना सुनने और समाचार जानने के लिए दूरी पर से भी कई लोग उधर आ पहुँच गये। उस की सिलाई मशीन के सम्मुख हो कर दीवार पर कुछ ऊँचे लगायी गयी तह पर वह रेडियो बैठी। कभी-कभी चाक्कुण्णी को लोगो से जरा हट के रहने को कहना पडा, ताकि उस तंग कमरे में कुछ हवा व रोशनी का संचार हो।

            देर रात को दुकान बंद कर के एक हाथ में भात का बरतन रखनेवाली थैली और दूसरे हाथ में रेडियो भी लिए चाक्कुण्णी लौट चलता। धीमी आवाज़ में तब भी रेडियो चलती होगी। जब वह मेंड काट कर चलता, तो सामने से आनेवाले आदमी ज़रा हट खडे-खडे रेडियो पर ध्यान देते रहे। लगभग एक घंटे का रास्ता होता है उसे। फिल्मी गीतों के संप्रेषण समय में सुनाया जानेवाला गीत खत्म होने तक कुछ आदमी उसका पीछा करते। पर, चाक्कुण्णी ने तो कुछ भी ध्यान दिया नहीं।

            जब वह लौट कर घर पहुँचता, पत्नी और बच्चे उसकी राह देख रहे होते। संप्रेषण खत्म होने तक उस घर से रेडियो की आवाज़ उठती रही। दो-दो महीनों के बीतते-बीतते बैटरी बदल देते हुए चाक्कुण्णी अपनी रेडियो का गला साफ करता रहा।

            रेडियो गिरवी रखने मे चाक्कुण्णी को कष्ट नहीं हुआ एैसा नहीं था, यहीं नहीं पत्नी-बच्चे भीं खुश नहीं थे। पर, कोई और चारा नहीं। छोटे बच्चे को अचानक एक बीमारी लग गयी। समस्या यह थी की उसके पैर पर छोटी सूजन आ गयी। शुरू में लगा कि वह नि:सार है। एक हफ्ते तक स्कूल नहीं भेजा। पर, कुछ दिनों बाद सूजन बढ़ गयी, बच्चे से ज़रा भी चला न जाता। देशी इलाज से रोग-शमन नहीं हुआ। फिर लगा कि सूजन सारी देह पर फैल रही है। आखिर एक दिन सिलाई को छोड, बच्चे को उठाए चाक्कुण्णी शहर के अस्पताल गया। उन्होने कई जाँच-पडतालों को लिख दिया। ऊपर से खाने के लिए कुछ दवाएँ भी। अस्पताल से निकलते समय चाक्कुण्णी के मन में पीडा भरी पडी थी।

            “हे मलयाट्टूर मुत्तप्पा (इसाइयों का एक प्रांतीय आराध्य देवता), क्या हो गया है मेरे लाल को? उस की चिकित्सा के लिए में क्या करूँ?”

            दो-एक हफ्ते की दवा लेने को तो उस के एक महीने भर सिलाई से मिलनेवाले पुरे रुपये चाहिए थे। बाद में सिला दे कर चुकाने के करार में उस ने कइयों से उधार लिया। लेकिन उस तरह के प्रबंधों में कुछ कमी थी। जमाना ऐसा था की सिला दिए के पैसे को भी लोग उधार कहते थे। कुछ लोग पैसा न देनेवाले तक होते थे। चाक्कुण्णी को देखते ही वे हट कर रहते। चूँकि उसने रेडियो खरीदी, इसलिए कार्य आसान होते रहे। गाना या समाचार को पास आते सुनकर रास्ता बदल सकते। आराट्टुकुन्नु में रेडियो से डरनेवाले वे विरले आदमी थे।

            एक महिना बीता, चाक्कुण्णी ने अपने पत्नी एवं बेटे को अस्पताल भेजा। उन्होंने बहुत-से जाँच के लिए और दवाइयों के लिए लिख दिया। सभी के लिए पैसा चाहिए था। चाक्कुण्णी की सिलाई की निशाएँ लंबी हो गयीं। जब वह लौट कर घर पहुँचता तो रेडियो-प्रसारण हो चुका होता था।

            चेम्पुमत्ताई के पास जा कर रेडियो गिरवी रखने के समय चाक्कुण्णी के भीतर आग थी। उसे महसूस हुआ कि अपने जीवन के एक अंश को ही कोई काट कर अलग कर रहा हो। चेम्पुमत्ताई उस रेडियो को कहाँ रख लेगा? क्या वह उसे छत पर फेंक देगा न? क्या वहीं पडे-पडे धूल चढ़ कर वह खराब हो जाएगी? उस के कोमल बाहरी भाग को चूहे कुतरेंगे न, किसने देखा? कितने दिनों बाद अब उसे वापस मिलेगा?

            हफ्ते बीत गये। सोने के कर्णफूल, मालाएँ, कंकण आदि सब मिल कर चेम्पुमत्ताई का व्यापार बढ़ता रहा। दर्जी चाक्कुण्णी की गिरवी को वह भूल गया।

            एक रविवार को गिरजाघर से वापस, घर आ चढ़ा तो ये खडा है आँगन में चाक्कुण्णी। उस के हाथ में एक छोटी सी पोटली थी।  

            “क्या गिरवी लेने को है?” मत्ताई ने प्रश्न किया। वह बहुत थका था। नज़रें अधिक गहरी पडी थीं।

            “रविवार को व्यापार नहीं है चाक्कुण्ये, तू जा कर कल आ जा।”

            “गिरवी लेने को नहीं मत्ताई भैया।” चाक्कुण्णी ने धीरे से बताया।

            चेम्पुमत्ताई ओसारे पर चढ़ा। सफ़ेद ओवरकोट उतार कर बरामदे पर रखा और अपनी आरामकुरसी पर लंबा-पसरा लेट पडा। फिर ओवरकोट लिए पंखा चलाने लगा।

            “ये क्या है पुलिंद में?” मत्ताई ने पूछा। “बैटरी” चाक्कुण्णी ने कहा। “रेडियो के लिए है।” “मैंने कहा कि गिरवी आज न लिया जाएगा।” मत्ताई ने उसे इस तरह देखा जैसे वह बला हो।

            “ना चाहिए, मगर ज़रा देखेँ कि यह बैटरी डालें तो वह गायेगा या……..”         “वो कुछ भी आज नहीं हो सकता।”

“वैसे न कहिए। कुछ ही देर उसे सुन कर मैं चला जाऊँ।” मत्ताई ने उसे घूर कर देखा। कैसा कुरुप है यह? उस को ऐसे लगा कि दर्जी चाक्कुण्णी खुद भी गलत माप में सिलाए गये कपडों में घुसा हुआ हो।

            “क्या अब तुझे कुछ काम नहीं है चाक्कुण्ये?”

चाक्कुण्णी ने इतना मात्र किया कि बैटरी की पोटली खोल कर दीनता के साथ उस की तरफ देखा। मत्ताई ने अपना लेखा पत्तर खोला। चाक्कुण्णी की गिरवी का जो नंबर उस में लिखा हुआ था, उसे ज़ोर से पढ़ा। फिर अंदर को आवाज लगाई:

            “कुज्जनम, एक सौ उनतीस इधर ले आना।” आँगन में खडे चाक्कुण्णी से मत्ताई ने पूछा: “अरे, तू ने ब्याज भी अदा न किया है। यह कैसी कथा है! मैं कुछ ही इंतजार करूँगा। फिर न देखूँगा कि रेडियो है या सिनेमा। जितने भी पैसे मिलेगे उस में बेच डालूँगा। यही है यहाँ का रिवाज़।” कपडे की एक थैली में गिरवी को लिए कुज्जनम आ गयी। वह उसे बरामदे में रख कर लौट गयी।

            “तू बरामदे में बैठ, यों ही आँगन में खडे न रह।” मत्ताई विशाल मनस्क बना। एक बार फिर ओवरकोट हिला कर उसने कहा: “ले, गाना या पूना क्या हो, तो सुन ले।”

            थैली खोल कर चाक्कुण्णी ने रेडियो को छु देखा। उसकी आँखें फूली थीं। पिछलें भाग में बच्चे के चित्र पर उसने गौर से निहारा फिर ढक्कन निकाल कर दोनों बैटरियों को उस में डाल कर रेडियो ऑन किया तो बच्चों का गीत सुनायी पडा। कोई ताल लगाता, कोई ताली बजाता।

            बरामदे में बैठे, चाक्कुण्णी ने उस पर ध्यान दिया, धीरे से सिर हिलाया। “ये क्या है चाक्कुण्ये, बच्चों का गीत है?” “बालमण्डल” चाक्कुण्णी पतली आवाज़ में बोला, “रविवार के सवेरे में यह है स्पेशल।”

चेम्पुमत्ताई ने वह सुनने का प्रयास किया। उसको वह उतना पसंद आया नहीं। उस में डूबे चाक्कुण्णी को देखा तो उसने कुछ बताया नहीं, बस। चेम्पुमत्ताई की समझ में किसी भी जमाने में नहीं आया था कि लोग गाना सुन कर समय क्यों बरबाद करते हैं।

            “क्या बे तू आज गिरजाघर गया?” बीच में मत्ताई ने पूछा। चाक्कुण्णी ने नकारते हुए सिर हिलाया, और फिर रेडियो पर ध्यान दिया।

            “रविवार को गिरजाघर जाना है। मत्ताई ने सदुपदेश दिया।” ये रेडियो सुनने के समय क़ुरबानी सुने। पादरियों से शिकायत न होने पावे कि हम जाते नहीं” उस कहे को चाक्कुण्णी ने न सुना।  

            बालमण्डल के खत्म होते ही वह बरामदे से उठा। रेडियो के पृष्ठभाग का ढ़क्कन निकाल कर बैटरियों को वापस लिया। “उसे वहीं रहने दे चाक्कुण्ये, लौट जाने के समय तू ले सकेगा।” “वो ना चाहिए भैया, इस्तेमाल ना होने पर बैटरी खराब हो जाएगी। एक नीर चू कर बहेगा उस में से।” उस ने कहा।

            “तब तो संक्षेप यह है कि समीप काल में कभी इसे ले जाने कि सामर्थ्य तेरे पास नहीं है। खैर, कल मैं उस रास्ते हो कर आनेवाला हूँ। इसी माप में एक कुरता भी सीना है। थान तो मैं ले दूँ, मजदूरी ब्याज पर रहे।”

            “कल मैं दुकान नहीं आऊँगा भैया। कुछ दिनों के लिए मैं काम नहीं करुगाँ।” सीढ़ियों से उतरते चाक्कुण्णी ने बताया। “वो क्यों?” आँगन में पहुँच कर चाक्कुण्णी मुड खडा। “मेरा बच्चा मर गया भैया, पिछले दिन। भर सक सारा इलाज किया, पर प्रभु ने दिया नहीं। कल रात लेटे नींद न आयी। उसे बहुत पसंद था यह बालमण्डल। वो सुनने मैं आ गया। सुन कर मुझे थोडी तसल्ली मिल गयी उसमें बच्चे गाते-हँसते तो हैं न? घर में किसी से वो बनता नहीं। मन का भार अभी जरा कम हो पाया।”

            उसने आँखें पोंछते हुए कहा: “मेरे सारे गणित चूक गये हैं भैया, सभी को तुम लिख रखो।”             फिर रबड़ के जीर्ण चप्पलोंवाले व गोखरू पडे पैरों को फर्श पर से खींचते हुए, मुड कर देखे बिना वह चल पडा।   

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E. Santosh Kumar

E Santhosh Kumar has published more than 15 books in Malayalam including Novels, Short Story collections, Children’s literature and a translation. He has won numerous literary awards including the Kerala Sahitya Academy award for the best short story collection (2006) and for the best novel (2012), a special jury mention for the story in the Kerala film awards (2017).

 

‘Island of Lost shadows’, the English translation of the Kerala Sahitya Academy award winning novel “Andhkaranzhi”,was shortlisted for the Crossword Book Award (2016). Two of his stories have been made into Malayalam films.

 

His stories have been translated into English, Tamil, Hindi and German. “A fistful of Mustard Seeds”, a collection of 12 stories in English has recently been published by Niyogi Books.

 

He works with National Insurance Company,presently at Kolkata.

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